ऐसे थे हिन्द नायक नेताजी

ऐसे थे हिन्द नायक नेताजी    माधव शरण द्विवेदी देश की स्वतंत्रता से पूर्व महान देश भक्त और वीर क्रान्तिकारी नेताजी सुभाषचन्द्र वोस के द्व...




ऐसे थे हिन्द नायक नेताजी 
 

माधव शरण द्विवेदी
देश की स्वतंत्रता से पूर्व महान देश भक्त और वीर क्रान्तिकारी नेताजी सुभाषचन्द्र वोस के द्वारा दिया गया नारा तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा आज भी प्रत्येक भारतवासी को याद है। देश की स्वतंत्रता के लिए प्रयासों में नेताजी ने अपने जीवन को न्यौछावर कर दिया था। जनवरी 1992 में नेताजी को भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया था नेताजी का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक (उडीसा) में हुआ था। इनके पिता कटक में सरकारी वकील थे, देश प्रेम उनकी रग-रग में भरा था। बी.ए. करने के लिए वह प्रेसीडेंसी कॉलेज में भर्ती हुए। इस कॉलेज में उनका नेतृत्व एवं संगठन शक्ति विकसित हो रही थी इस कॉलेज में अंग्रेज विद्यार्थी बात-बात में भारतियों का अपमान किया करते थे। यह देख कर वह बहुत दुखी थे कोई भारतीय विद्यार्थी इसका विरोध क्यो ंनहीं करता? एक मित्र के अपमान के बदले में आप प्रोफेसर ओटन से भिड गये उक्त फ्रोफेसर पर हमला करने के अपराध में आप कॉलेज से निकाल दिये गये थे। इनके पिता ने काफी आशाओं के साथ उन्हें आई.सी.एस. के लिए भेजा था। सन् 1920 में आईसी.एस परीक्षा में चैथे स्थान पर आकर उन्हौंने सभी को अचम्भित कर दिया था। देश के वातावरण में देश भक्ति की आंधी चल रही थी, उससे प्रेरित होकर वह भी राजद्रोही हो गये और आई.सी.एस. की नौकरी छोड दी। प्रिन्स होकर वह भी राजद्रोही हो गये और आई.सी.एस. की नौकरी छोड दी। प्रिस ऑफ वेल्स के स्वागत के बहिष्कार के संबंध में उन्हें प्रथम बार गिरफ्तार करके 6 माह की सजा दे दी गई। सन् 1922 में उत्तर बंगाल में इन्हौंने बाढ पीडितों की सहायता की, आप स्वराज्य पार्टी के प्रमुख पत्र फारवर्ड के सम्पादक बनाये गये। सन् 1924 में कलकत्ता नगर निगम में आपको एक्जीक्यूटिभ ऑफिसर बनाया गया। आपको बंगाल आर्डिनेंस के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया था। अपने जेल प्रवास में ही वह प्रांतीय धारा सभा के सदस्य चुन लिये गये थे। सन् 1928 की कलकत्ता की कलकत्ता कंाग्रेस में पंडित नेहरू के जुलूस में चलने वाले स्वयं सेवक दल के सेनानी नेताजी थे। बाद में पंडित नेहरू द्वारा बनाई गई इन्डिपेंडेंस लीग के प्रचार में आपने पंडित नेहरू को खूब सहयोग दिया। लाहौर कांग्रेस में पूर्ण स्वराज्य को कांग्रेस ने अपना उद्देश्य स्वीकृत कर लिया था। इसी बीच सुभाष बाबू कलकत्ता के मेयर बन चुके थे, आपके नेतृत्व में कलकता में भी जुलूस निकला सुभाष बाबू साथियों सहित बंदी बना लिये गये। क्योंकि चारों ओर कानून तोडे जा रहे थे। सरकार बौखलाई हुई थी। जेल मेें इन्हें क्षयरोग हो गया था। सरकार ने उन्हें इस शर्त पर रिहा किया था कि रिहा होते ही वह यूरोप चले जायें। वह रिहा होते ही स्विटजर लैण्ड चले गये थे। तीन वर्ष बाद पिता की मृत्यु पर सुभाष बाबू भारत आये और सरकार को दिये गये वचन का पालन करके वह पुन: यूरोप लौट गये। यूरोप में ही आपने ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी नीति का भंडाफोड किया, सन् 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में वह कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। अगले वर्ष आपने कांग्रेस के इतिहास में पहली बार नामजद सदस्य के विरूद्ध अध्यक्ष पद का चुना लडा, और वियजी हुए कहा जाता है कि पट्टाभि सीता रमैया की पराजय पर स्वयं गांधी जी ने कहा था कि वह उनकी हार हुई, सुभाष बाबू अध्यक्ष निर्वाचित हो जाने के पश्चात् भी दक्षिण पंथी कांग्रेसयियों ने उनसे खुल कर असहयोग किया, तो इन्हौंने त्याग पत्र दे दिया। उनके स्थान पर राजेन्द्र बाबू अध्यक्ष बनाये गये। अगला कांग्रेस अधिवेशन रामगढ में हुआ, सुभाष बाबू ने समझौते विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया, जो अपूर्व भी रहा, सुभाष बाबू पर यह दोष लगा कर कि उन्हौंने कांग्रेस के विरूद्ध में एक नया दल खड़ा किया है, उनकेा कांग्रेस की सदस्यता से भी वंचित कर दिया गया। यहां तक कि बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी को भी कांग्रेस ने निर्वासित कर दिया गया इसी समय सुभाष बाबू ने बंगाली जनता को सामूहिक आंदोलन प्रारंभ करने के लिए आदेश दिया सरकार सुभाष बाबू के संकेत पर ही बंगाल में उठते हुए तूफानों को देख कर भयभीत हो गई और उसने सुभाष बाबू को जेल में डाल दिया। उन्हौंने अन्शन प्रारंभ कर दिया अंत में सरकार ने एक महीने के लिए उन्हें छोड दियाा, परन्तु उनके घर पर कडा पहरा लगा दिया फिर भी वह भाग निकलने में सफल हुए। दाढी बडी करके पठान जिया उद्दीन के वेश में उन्हौंने एक काफिले के साथ सीमा पार की और काबुल पहुॅच गये। दाढी ने पुलिस की आंखों में धूल झौंक एक व्यक्ति के पासपोर्ट का उपयोग करके आप जर्मनी पहुॅच गये हिटलर ने सुभाष बाबू का सम्मान किया वह मुसोलिनी एवं उसके दामाद से भी मिले। हिटलर ने उनसे मुलाकात करके, उन्हें सहयोग दिया। जून 1943 में सुभाष टोकियो आ गये थे, 02 जुलाई को आप सिंगापुर पधारे, 4 जुलाई को श्री रासबिहारी वोस ने उन्हें आजाद हिंद फौज का सेनापति बना दिया। इसके बाद सारे विश्व ने उनकी संगठन शक्ति का अनुभव किया। आजाद हिन्दफौज के सैनिक भारत की आजादी का संदेश लेकर आगे बढने लगे। आजाद हिन्द फौज का वितरण-सुभाष बिग्रेड, गाधी बिग्रेड, नेहरू बिग्रेड और आजाद बिग्रेड मे किया गया था। कैप्टन लक्ष्मी की देखरेख में महिलाओं की अलग झांसी रानी रेजीमेंट थी बच्चों की अलग टुकडी थी, 21 अक्टूम्बर 1943 को सुभाषच्न्द्र बोस ने सिंगापुर में आजाद भारत की अस्थायी सरकार की घोषणा कर दी, जापान, जर्मनी, इटली, चीन आदि विभिन्न सरकारों ने आजाद हिंद, सरकार की स्वतंत्रता को एकमत से स्वीकार कर लिया था। सरकार का केन्द्र पहले सिंगापुर में बाद में वर्मा में, रंगून को ही अस्थाई सरकार की राजधानी और प्रधान कार्यालय बनाया गया। सुभाष बाबू ने जय हिन्द के नारे को जर्मनी में जन्म दिया था। उनके जन्म दिन पर रंगून में दिए उनके ऐतिहासिक भाषण में उन्हौंने कहा था ÓÓस्वतंत्रता संग्राम के मेरे साथियों स्वतंत्रता बिलदान चाहती है। आपने आजादी के लिए बहुत त्याग किए, कित्नु अपनी जान की आहुति अभी बांकी है। मैं आप सबसे मांगता हूॅ और वह है खून। दुश्मन ने हमारा जो खून बहाया है उसका बदला सिर्फ खून से चुकाया जा सकता है। इसलिए तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूगां। इस प्रतिज्ञा पत्र पर साधारण स्याही से हस्ताक्षर नहीं करने हैं। वे आगे आएं जिनकी नसों में भारतीयता का सच्चा खून बहता हो। जिसे अपने प्रांणों का मोह अपने देश की आजादी से ज्यादा न हो और जो आजादी के लिए सर्वस्व त्याग करने के लिए तैयार हो । सुभाष बाबू स्वयं भाषणों द्वारा धन एकत्र करते थे, उपहार में आयी हुई चीजों की नीलामी द्वारा भी अच्छी खासी रकम एकत्रित की जाती थी, अंत में रंगून के एक करोडपति की सहायता से आजाद हिन्द बैंक की स्थापना हो गई। आजाद हिन्द फौज के सैनिक आजादी के लिए लड़ते थे, पैसों के लिए नहीं, अण्डमान-निकोबार द्वीप भी स्वतंत्र किए जा चुके थे। सुभाष बाबू के 18-18 घंटे निरंतर काम करने की क्षमता का ज्ञान भी सबको न हो पाया था। सुभाष द्वारा लगाई गई दिल्ली चलो की आवाज ने सिपाहियों पर जादू सा असर किया था। 8 मार्च 1944 का वह दिन भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा जायेगा, जब आजाद हिंद की सेनायें कोहिमा ओर मणिपुर के युद्ध में जी-जानसे जुट पड़ी थी, दो महीने में ही अंग्रेजी सेना को पीछे हटना पड़ा। पुन: पूरी तैयारी के साथ दूसरा आक्रमण किया गया क्षणिक सफलता भी मिली परन्तु साधनों ओैा विशेषत: वायु सेना के अभाव में और अंत में ब्रिटिश सरकार के विशाल साधनों के आगे सुभाष बाबू को रंगून छोड देना पड़ा। 19 मई 1945 को अंग्रेजों ने पुन: रंगून पर अधिकार जमा लिया। पीठ पर सुरंगें बांधकर ओर जमीन पर लेटकर ब्रिटिश टेंको को उडाने वापले बाल सैनिकों, भूखे पेट छापा मारने वाले एवं गुलामी के घी से आजादी की घास को श्रेष्ठ समझने वाले सैनिकों एवं सोलह-सोलह घण्टों तक युद्ध करके ब्रिटिश सेना के छक्के छुडा देने वाले झांसी रेजीमेंट की सेनिकाओं को युग-युग तक इतिहास के पृष्ठों पर याद किया जायेगा। 23 अगस्त 1945 को टोकियो से यह समाचार सुनकर कि सुभाष बाू 18 अगस्त 1945 को वायुयान दुर्घटना में बुरी तरह घायल हुए और उसी रात इस संसार से चल वसे। देश की स्वतंत्रता के लिए मर मिटने वाले देशभक्त सुभाष बाबू युग-युग के लिए अमर हो गये। जय हिन्द

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