अतुल गौड़ लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया के पत्रकार हैं। यह हो हल्ला का ही तो द...
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया के पत्रकार हैं।
यह हो हल्ला का ही तो दौर है जहा देश सेमिफ़ाइनल चुनावो से गुज़र रहा है सुबकुछ आखों के सामने है हुजुर फिर भी आखें बही देख रही है जो राजनैतिक पार्टियाँ हमें और आपको दिखाना चाहती है यही तो देश का सबसे दुखद पहलु है जिस पर या तो हम गौर नहीं करते या करते भी हैं तो खुद कोई पहल करना नहीं चाहते लेकिन बड़ा सच तो ये है की ये राजनैतिक दल हमें कुछ करने देना ही नहीं चाहते इनके मनसूबे हैं की हम जात पात धर्म लालच और आरक्षण के फेर में पड़े रहकर ही बस वोट करते रहे ये सत्ता में बने रहे और देश का आगे जो कुछ भी हो बस रामभरोसे ही हो और अब तक यही तो होता आया है पर सवाल ये है की कब तक घ्कब तक हम खुदको एक लोकतान्त्रिक देश का हिस्सा मान कर गुमराह बने रहेंगे घ्दरअसल देश के चुनाव आयोग को भी अब आधुनिक और डिज़िटल हो रहे भारत का हिस्सा बनने की सख्त दरकार है चुनावों में बे तहाशा पैसा उसकी बन्दर बाँट और न जाने क्या क्या ये सब कुछ हमारे सामने है आयोग की खर्च लिमिट कैसे क्रॉस की जाती है ये भी हम बखूबी जानते है और अनुभव कर रहे है की मौजूदा दौर के ये चुनाव लोकतान्त्रिक ना होकर पैसा तांत्रिक हो चले हैं और तो और सत्ता में आने व बने रहने के लिए ये नेता तो देश के ईमानदार करदाता की गाड़ी कमाई का पैसा घी दूध में लुटा रहे हैं सब जानते हैं की देश की राजनैतिक पार्टियों का लगभग ६० प्रतिशत पैसा बे हिसाबी है हर तरफ देश में बस इन नेतायों का ही तो बोलबाला है जी आखिर हम जा कहाँ रहे हैं कभी सोचा है किसी ने जय जय कार के नारे और लोगों का हुजूम ये सब क्या है और इसकी आखिर आवश्यकता ही क्या है जैसे सवाल बड़े है एक तरफ डिज़िटल भारत की बात हो रही है दूसरी तरफ कुकर बाँट रहे हैं मोबाइल, लेपटोप भी चुनावी हथकंडा हो चले है अरे देश हमारा है हम वाकई में लोकतान्त्रिक है और लोकतंत्र की रक्षा करना चाहते है तो ये सब कियूं राजनेतिक पार्टियों को भला सत्ता में आने के लिए देश को मुफ्तखोर बनाने की ये इजाज़त आखिर दी किसने कियूं नहीं देश में पहले मूलभूत सुविधायों का ढांचा खड़ा होता कियूं नहीं पुलिस बल में खाली पड़े पद भरे जाते कियूं स्कूलों में मास्टर मुहैया नहीं हो पाते कियूं शोचालय बनाने की प्रेरणा देने और विज्ञापनों पर खर्च से पहले देश के गाँव गाँव में पानी और बिजली नहीं दी जा सकी क्या वजह रही की हम सड़क नहीं बना पाए और क्या कारण हैं की हम लोगों को रोज़गार देने की वजह बेरोज़गारी भत्ता देने की बात करने लगे क्यों देश में समय से न्याय नहीं मिलता क्यों जजों की भरती नहीं हो पाती ,इन नेतायों को अब भी नहीं रोका गया तो ये देश को पूरी तरह से मुफ्तखोर बना कर ही दम लेंगे कभी सोचा है की देश के करदातायों ने कर उत्सर्जन करने की बजह मुफ्तखोरों की जमात में खुद को खड़ा कर लिया तो अंजामे देश क्या होगा क्या ये नेता तब भी देश के राजस्व को एसे ही लुटाते रह सकेंगे कभी हम रूककर सोचते हैं की शिक्षा कैसे गरीब की पहुँच से दूर हो रही है सरकारी स्कूलओ के हालात किसी से छुपे नहीं है और निजी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहे है , अरे गरीब को कुछ देना है तो बेहतर चिकित्सा साधन दो ए अच्छी तालीम के लिए माहोल और संसाधन दो जीविका के लिए हर हाथ को काम दो मेक इन इंडिया का नारा देते हो तो देश के गाँव और शहरों में सुख सुविधाएँ दो यातायात के लिए अच्छे विकल्प मोहयिया करवायो सिर्फ देश के लोगों को लेपटोप मोबाइल और गैस कुकर के साथ घी दूध बाँट कर तो आप सिर्फ बेवकूफ बना रहे हैं ए देश की जनता को चन्द दाने बा मुश्किल मयस्सर होते हैं और नेताजी आप महंगी महंगी गाड़ियों में घुमते दिखते हैं भला करते हैं आप देश और जनता का तो किस से खतरा है आप को कियूं देश का वाजिब पैसा बे बजह अपनी कोरी सुरक्षा पर खर्चते है अरे बंद कीजिये ये घडियाली आंसू बहाना अब तो सच से रुबरु हो कर देखिये फटे कुरते को दिखा कर अब ये तमाशा और नहीं चलेगा नेशन फर्स्ट है तो इसे अब बदलना ही होगा इन नेतायों को जनतंत्र की ताक़त का अहसास भी करना होगा हाथ को काम मांगेगे देश वासी खैरात से अब सबको इनकार करना ही होगा बदलना है गर भारत को तो खुद को बदलना जरूरी होगा मजबूर करो इन कमज़र्फ नेतायों और राजनैतिक दलों को की अब हिसाब तुमको भी पाई पाई का देना होगा बेहतर शिक्षा चिकित्सा सड़क पानी बिजली और रोज़गार अब इनसे हक़ से मांगना भी होगा डिज़िटल भी होना होगा तो तो बिना रुके तेज़ इन्टरनेट भी मांगना होगा ऑनलाइन पेमेंट की बात करते हो हुजुर तो मेरे पैसे को यूँ बेजा बाटने से तौबा भी अब तुमको करना होगा दर असल ये राजनैतिक दल और सरकारें अपनी नाकामयाबियो पर पर्दा डालने के लिए बटोना बाँटती हैं मतलब साफ़ है की जब तक हम ये खैरात लेते रहेंगे तब तक ये हमें युही गुमराह करते रहेंगे देश लुटता ही रहेगा बदल डालने होंगे देश के इन पुराने रीति रिवाजों को नयी नीव रखने के लिए इस देश के हर नोजवान को अब तो कमर कसना ही होगा खैरातों के बटोने देश बढता नहीं पिछड़ता ही है यह हम सबको समझना ही होगा यही कुछ शायद लेखक दुष्यंत कुमार ने भी कभी महसूस तो किया ही होगा और तभी तो उनकी ये पीर कविता बनकर उनके जहन से बाहर आयी होगी कि
हो गई है पीर पर्वत.सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार परदों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।
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