प्रमोद भार्गव कालेधन पर अंकुश लगाने की दृष्टि से केंद्र सरकार ने राजनीतिक दलों को मिलने वाले नगद चंदे में पारदार्शिता लाने की पहल ...
कालेधन पर अंकुश लगाने की दृष्टि से केंद्र सरकार ने राजनीतिक दलों को मिलने वाले नगद चंदे में पारदार्शिता लाने की पहल की है। आम बजट में नगद चंदे की सीमा २०००० रुपए से घटाकर २००० रुपए कर दी गई है। साथ ही सरकार राजनीतिक दलों के लिए आय-व्यय का लेखा-जोखा रखने को अनिवार्य भी करने वाली है। इस सिलसिले में प्रस्तावित कानून के अनुसार दलों को दिसंबर तक अपने बहीखातों का ब्यौरा आयकर विभाग को जमा करना होगा, अन्यथा उन्हें आयकर में मिलने वाली छूटें समाप्त की जा सकती है। यदि इस प्रस्तावित कानून में दानदताओं की पहचान भी आधार कार्ड के मार्फत अनिवार्य कर दी जाए तो चंदे में पारदर्शिता बहुत अधिक बढ़ जाएगी। साथ ही वास्तविक दानदताओं की पहचान आसान हो जाएगी। चुनाव सुधार की दृष्टि से यह पहल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हाल ही में एसोसिएशन फाॅर डेमोक्रेटिक रिफाॅर्म की रिपोर्ट से पता चला है कि राजनैतिक दलों के चंदे में ५ गुना तक वृद्धि हुई है, जिसमें से महज १६ फीसदी के ही स्रोत ज्ञात हैं। जबकि केंद्रिय सूचना आयोग के अनुसार राष्ट्रीय राजनीतिक दल सार्वजनिक प्राधिकरण हैं जो कि सूचना के अधिकार के तहत आते हैं।
निर्वाचन आयोग ने नगद चंदे की सीमा २०,००० से घटाकर २००० रुपए करने की सिफारिश की थी। आयोग ने इसके लिए जनप्रतिनिधित्व अधिनियम १९५१ में संशोधन का सुझाव दिया था। फिलहाल दलों को मिलने वाला चंदा आयकर अधिनियम १९६१ की धारा १३ (ए) के अंतर्गत आता है। इसके तहत दलों को २०००० रुपए से कम के नगद चंदे का स्रोत बताने की जरूरत नहीं है। इसी झोल का लाभ उठाकर दल बड़ी धनराशि को २०००० रुपए से कम की राशियों में सच्चे-झूठे नामों से बही खातांे में दर्ज कर कानून को ठेंगा दिखाते रहे हैं। यदि प्रस्तावित कानून में संशोधन के बाद दान में मिलने वाली २००० तक की राशि के दानदाता की पहचान को आधार से नहीे जोड़ा गया तो राजनीतिक दल मिलने वाले चंदे को सच्चे-झूठे नामों से मिला चंदा दर्शाते रहेंगे। वैसे भी अब २००० रुपए जैसी मामूली राशि चंदे में नहीं दी जाती है। फिर भी यदि किसी उद्योगपति को २००० की राशि में चंदा देना ही है तो वह अपने कर्मचारियों के नाम से चंदा दे सकता है। लिहाजा इनकी पहचान के लिए आधार की अनिवार्यता की जानी चाहिए। चंदे की राशि के अलावा दलों को अवासीय संपत्ति से आय, बैंकों में जमा-पूंजी के ब्याज और स्वैछिक योगदान से आमदनी तथा अन्य कई स्रोतों से होने वाली आय पर भी कर छूट मिली हुई हैं।
हाल ही में चुनाव आयोग ने भारत में १९०० पंजीकृत राजनीतिक दल होने की बात कही थी। इनमें से ४०० से भी ज्यादा ऐसे दल हैं, जिन्होंने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा है। इस नाते आयोग ने आशंका जताई है कि ये दल संभव है कालेधन को सफेद में बदलने का माध्यम बनते हों ? आयोग ने अब ऐसे दलों की पहचान कर उनको अपनी सूची से हटाने व उनका चुनाव चिन्ह जब्त करने की कवायात शुरू कर दी है। आयोग ने आयकर विभाग को भी ऐसे कथित दलों की आयकर छूट समाप्त करने को कहा है। असल में ये दल और आयकर कानून १९६१ की धारा १३ (ए) भ्रश्टाचार और काली कमाई को छिपाने तथा सफेद करने में बेइंतहा मदद करते है। इसीलिए आयोग ने वास्तविक दलों को ही कर-छूट देने का परामर्श दिया है। यदि ऐसा हो जाता है तो इससे भी चुनाव में गुप्त धन का महत्व कम होगा और पारदार्शिता की दिशा में एक सार्थक पहल होगी।
विमुद्रीकरण के बाद से केंद्र सरकार आॅनलाइन भुगतान व्यवस्था पर जोर दे रही है, वहीं भाजपा समेत देश के सभी राजनीतिक दल आॅनलाइन चंदा लेने से कतरा रहे है। साल २००४ से २०१५ के बीच हुए विधानसभा चुनावों में विभिन्न राजनीतिक दलों को २१०० करोड़ रुपए का चंदा मिला हैं। इसका ६३ प्रतिशत नकदी के रूप में लिया गया है। इसके अलावा पिछले ३ लोकसभा चुनावों में भी ४४ फीसदी चंदे की धनराशि नकदी के रूप में ली गई है। राजनैतिक दल उस ७५ फीसदी चंदे का हिसाब देने को तैयार नहीं है, जिसे वे अपने खातों में अज्ञात स्रोतों से आया दर्शा रहे है। एडीआर के रिपोर्ट के अनुसार २०१४-१५ में व्यापारिक घरानों के चुनावी न्यासों से दलों को १७७.४० करोड़ रुपए चंदे के रूप में मिले हैं। इनमें सबसे ज्यादा चंदा १११.३५ करोड़ भाजपा, ३१.६ करोड़ कांग्रेस, एनसीपी ५ करोड़ बीजू जनता दल ६.७८ करोड़, आम आदमी पार्टी ३ करोड़, आईएनएलडी ५ करोड़ और अन्य दलों को १४.३४ करोड़ रुपए मिले हैं। दरअसल राजनीतिक दलों और औद्योगिक घरानों के बीच लेनदेन में पारदार्शिता के नजरिए से २०१३ में संप्रग सरकार ने कंपनियों को चुनावी ट्रस्ट बनाने की अनुमति दी थी। ये आंकड़े उसी के परिणाम हैं।
क्षेत्रीय दल भी चंदे में पीछे नहीं रहे हैं। २००४ से २०१५ के बीच हुए ७१ विधानसभा चुनावों के दौरान क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने कुल ३३६८.०६ करोड़ रुपए चंदा लिया है। इसमें ६३ फीसदी हिस्सा नकदी के रूप में आया। वहीं, २००४, २००९ और २०१४ में हुए लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों को १३०० करोड़ रुपए चंदे में मिले। इसमें ५५ प्रतिशत राशि के स्रोत ज्ञात रहे जबकि ४५ फीसदी राशि नकदी में थीं, जिसके स्रोत अज्ञात रहे। २००४ और २०१५ के विधानसभा चुनाव के दौरान चुनाव आयुक्त को जमा किए चुनावी खर्च विवरण में बताया गया है कि समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना और तृणमूल कांग्रेस को सबसे ज्यादा चंदा मिला है। चंदे के इन आंकड़ों से पता चलता है कि बहती गंगा में सभी दल हाथ धोने में लगे हैं। इन आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि औधोगिक घराने चंदा देने में चतुराई बरतते हैं। उनका दलीय विचारधारा में भरोसा हाने की बजाए, सत्ताधारी दलों की ताकत में भरोसा होता है। लिहाजा कांगे्रस और भाजपा को लगभग समान रूप से चंदा मिलता है। जिस राज्य में जिस क्षेत्रीय दल की सत्ता है अथवा नुकसान पहुंचाने लायक वर्चस्व है, उन्हें भी खूब चंदा मिलता है।
राजनीति को पारदर्शी बनाने की दृष्टि से केंद्र्रीय सूचना आयोग राज्यसभा सचिवालय के माघ्ययम से सभी सांसदों से आग्रह कर चुका है कि वे अपने निजी व अन्य कारोबारी हितों को सार्वजानिक करें और अपनी चल- अचल संपति का खुलासा करें ? लेकिन आयोग का आग्रह संसद में नक्कारखाने की तूती साबित हुई। ज्यादातरदों सांसदों ने पारदर्शिता के आग्रह को ठुकरा दिया। जिस ब्रिटेन से हमने संसदीय सरंचना उधार ली है,उस ब्रिटेन में परिपाटी है कि संसद का नया कार्यकाल शुरू होने पर सरकार मंत्री और संासदों की संपति की जानकारी और उनके व्यावसायिक हितों को सार्वजानिक करती है। अमेरिका में तो राजनेता हरेक तरह के प्रलोभन से दूर रहें, इस दृष्टि से और मजबूत कानून है। वहां सीनेटर बनने के बाद व्यक्ति को अपना व्यावसायिक हित छोड़ना बाघ्यकारी होता है। जबकि भारत में यह परिपाटी उलटबांसी के रूप में देखने में आती है। यहां सांसद और विधायाक बनने के बाद राजनीति धंधे में तब्दील होने लगती है। ये धंधे भी प्रकृतिक संपदा के दोहन, भवन निर्माण, सरकारी ठेके, टोल टैक्स, शराब ठेके और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के राशन का गोलमाल कर देने जैसे गोरखधंधो से जुड़े होते हैं। अब तो शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर भी राजनेताओं का कब्जा बढ़ता जा रहा है। यहि कारण है कि अब तक जितने भी बड़े घोटाले सामने आए हैं, वे सब ऐसे ही काले कारोबार में लिप्त पाए गए हैं। इस लिहाज से जरूरी हो जाता है कि देश की अवाम को यह जानने का अधिकार मिले कि जिन पर विकास, लोक कल्याण और प्रजातंत्र का दायित्व है, उन्हें एकाएक मिल जाने वाले धन के स्त्रोत कहां हैं ? राजनीति में सुरसामुख बनता भ्रष्टाचार जन विरोधी होती सरकारी नीतियां, औधोगिक घरानों के पक्ष में जाते फैसले और कानून की अवहेलना की घटनाएं जिस तरह से बढ़ रही हैं, उस तारतम्य में जरूरी हो जाता है कि राजनीति दल पारदर्शिता की खातिर आरटीआई के दायरे में आएं, जिससे संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों का आचरण मर्यादित रहे। साथ ही चुनाव सुधारों के लिए जो समीतियां बनाई जाती है, उनमें नौकरशाहों की बजाय अनुभवी राजनेताओं, समाजसेवियों और पत्रकारों को लिया जाए। क्योंकि इन लोगों को कानूनी झोलों का पता होता है। इसलिए ये ऐसे कानूनी उपाय कर सकते है, जिनसे झोल खत्म हों। वैसे भी भ्रष्टाचार कभी भी कानूनों को कड़ा करने से रुकने वाला नहीं है, उसका खात्मा सरलीकरण से ही संभव है। इस दृष्टि से चुनाव खर्च की सीमा भी बढ़ाना जरूरी है। राजनेता अकसर जन-साधारण को तो ईमानदारी और पारदार्शिता की नसीहत देते रहते हैं, लेकिन राजनीति में स्वयं उदाहरण कम ही बनते है। बल्कि इसके उलट राजनीति में ऐसे विशेषधिकार प्राप्त करने की कोशिश बनी रहती है, जिससे काली कमाई के अज्ञात स्रोतों पर पर्दा पड़ा रहे। इस लिहाज से यह जरूरी हो जाता है कि आय के स्रोत स्पष्ट तो हों ही और केंद्रीय बजट में जो उपाय किए गए है, वे हाथी के दांत साबित न हो।
प्रमोद भार्गवशब्दार्थ ४९,श्रीराम काॅलोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. ०९४२५४८८२२४
फोन ०७४९२ २३२००७
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।
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