प्रमोद भार्गव व्हाट्सप की नई गोपनीय नीति से निजता के हनन के मामले में सुप्रीम कोर्ट से केंद्र सरकार ने कहा कि निजी जानकारियों की स...
व्हाट्सप की नई गोपनीय नीति से निजता के हनन के मामले में सुप्रीम कोर्ट से केंद्र सरकार ने कहा कि निजी जानकारियों की सुरक्षा जीवन के अधिकार के दायरे में आता है। लिहाजा निजी डाटा को व्यावसायिक फायदे के लिए इस्तेमाल करना गलत है। निजी जानकारी जीवन के अधिकार का ही एक पहलू है। इसलिए सरकार की यह दलील नौ जजों की पीठ के समक्ष निजता के अधिकार पर चल रही बहस के दौरान दिए गए उस तर्क के उलट है, जिसमें सरकार ने कहा था कि आधार की जानकारियां विषेश उद्देष्यों के लिए साझा की जा सकती हैं। व्हाट्सप और आधार कानून ही नहीं सरकार ‘मानव डीएनए सरंचना विधेयक‘ लाकर भी मनुश्य की जिंदगी के राज जानने के कानून उपायों में लगी है।
केंद्र सरकार देष के प्रत्येक नागरिक की कुण्डली तैयार करने की दृश्टि से ‘मानव डीएनए सरंचना विधेयक-2015‘ लाने की कवायद में लगी है। कालातंर में यदि यह विधेयक पारित हो जाता है तो देष के हरेक नागरिक का जीन आधारित कंप्युटरीकृत डाटाबेस तैयार होगा। चुनांचे एक क्लिक पर मनुश्य की आतंरिक जैविक जानकारियां पर्दे पर होंगी। लिहाजा इस विधेयक को भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 में आम नागरिक के मूल अधिकारों में दर्ज गोपनीयता के अधिकार का स्पश्ट उल्लंघन माना जा रहा है। हालांकि इसे अस्तित्व में लाने के प्रमुख कारण अपराध पर नियंत्रण और बीमारी का रामबाण इलाज बताए जा रहे हैं। सवा अरब की आबादी और भिन्न-भिन्न नस्ल व जाति वाले देष में कोई निर्विवाद व आषंकाओं से परे डाटाबेस तैयार हो जाए यह अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। क्योंकि अब तक हम न तो विवादों से परे मतदाता पहचान पत्र बना पाए और न ही नागरिक को विषिश्ट पहचान देने का दावा करने वाला आधार कार्ड ? लिहाजा देष के सभी लोगों की जीन कुण्डली बना लेना भी एक दुश्कर व असंभव कार्य लगता है ? हां, तकनीक आधारित इस डाटाबेस को तैयार करने के बहाने प्रौद्योगिकी उत्पादों से जुड़ी कंपनियों के जरूर बारे-न्यारे हो जाएंगे।
विधेयक के सामने आए प्रारूप के पक्ष-विपक्ष संबंधी पहलुओं को जानने से पहले थोड़ा जीन कुण्डली की आतंरिक रूपरेखा जान लें। मानव-षरीर में डी आॅक्सीरिवोन्यूक्लिक एसिड यानी डीएनए नामक सर्पिल सरंचना अणु कोषिकाओं और गुण-सूत्रों का निर्माण करती है। जब गुण-सूत्र परस्पर समायोजन करते हैं तो एक पूरी संख्या 46 बनती है,जो एक संपूर्ण कोषिका का निर्माण करती है। इनमें 22 गुण-सूत्र एक जैसे होते हैं,किंतु एक भिन्न होता है। गुण-सूत्र की यही विशमता स्त्री अथवा पुरूश के लिंग का निर्धाररण करती है। डीएनए नामक यह जो मौलिक महारसायन है, इसी के माध्यम से बच्चे में माता-पिता के आनुवंषिक गुण-अवगुण स्थानांतरित होते हैं। वंषानुक्रम की यही वह बुनियादी भौतिक रासायनिक,जैविक तथा क्रियात्मक ईकाई है, जो एक जीन बनाती है। 25000 जीनों की संख्या मिलकर एक मानव जीनोम रचती है, जिसे इस विशय के विषेशज्ञ पढ़कर व्यक्ति के आनुवांषिकी रहस्यों को किसी पहचान-पत्र की तरह पढ़ सकते हैं। मसलन यदि मानव-जीवन का खाका रिकाॅर्ड करने का कानून वजूद में आ जाता है तो व्यक्ति की निजता के अधिकार के कोई मायने ही नहीं रह जाएंगे।
मानव-जीनोम तीन अरब रासायनिक रेखाओं का तंतु है,जो यह परिभाशित करता है कि वास्तव में मनुश्य है क्या ? इसे पढ़ने के लिए 1980 में ‘मानव-जीनोम परियोजना‘ लाई गई थी। जिस पर 13,800 करोड़ रुपय खर्च हुए थे। इसमें अंतरराश्ट्रीय जीव व रसायन विज्ञानियों की बड़ी संख्या में भागीदारी थी। भिन्न मोर्चों पर दायित्व संभालते हुए इन विज्ञानियों ने इस योजना को 2001 में अंजाम तक पहुंचाया। मुकाम पर पहुंचने के बाद आधुनिक जीव वैज्ञानिक आज कोषिकीय रासायन षास्त्र की जटिलता का विष्लेशण करने में पारदर्षी दक्षता का दावा करने लगे हैं। गोयाकि इस सफलता ने यह तय कर दिया है। कि जीव विज्ञान में रासायनिक विष्लेशण से जैसे सभी समस्याओं का तकनीकी समाधान संभव है ?
ह्यूमन डीएनए प्रोफाइलिंग बिल 2015 लाने के पक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं कि डीएनए विष्लेशण से अपराध नियंत्रित होंगे। खोए, चुराए और अवैध संबंधों से पैदा संतान के माता-पिता का पता चल जाएगा। इस बाबत देषव्यापी चर्चा में रहे नारायण दत्त तिवारी और उनके जैविक पुत्र रोहित षेखर तथा उत्तर प्रदेष सरकार के सजायाफ्ता पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी व कवयित्रि मधुमिता षुक्ला के उदाहरण दिए जा सकते हैं। रोहित तिवारी और उज्जवला षर्मा के नाजायज संबंधों का परिणाम था। तिवारी पूर्व से ही विवाहित थे, इसलिए रोहित को पुत्र के रूप में नहीं स्वीकार रहे थे। किंतु जब रोहित ने खुद को तिवारी एवं उज्जवला की जैविक संतान होने की चुनौती सर्वोच्च न्यायालय में दी और डीएनए जांच का दबाव बनाया तो तिवारी ने हथियार डाल दिए। रोहित ने यह लड़ाई अपना सम्मान हासिल करने की दृश्टि से लड़ी थी। इसी तरह अमरमणि नहीं स्वीकार रहे थे कि मधुमिता से उनके नजायाज संबंध थे। किंतु सीबीआई ने मृतक मधुमिता के गर्भ में पल रहे षिषु भू्रण और अमरमणि का डीएनए टेस्ट कराया तो मजबूत जैविक साक्ष्य मिल गए। जिससे अमरमणि व उनकी पत्नी हत्या के प्रमुख दोशी साबित हुए व आजीवन कारावास की सजा पाई। बहरहाल कानून बनाने से पहले ही अदालतें डीएनए जांच रिर्पोट के आधार पर फैसले दे रही हैं। लावारिष तथा पहचान छिपाने के नजरिए से कुरूपता में बदल दी गईं लाषों की पहचान भी इस टेस्ट से संभव है। लेकिन इस संदर्भ में देष की पूरी आबादी का जीन-बैंक बनाए जाने का कोई औचित्य समझ से परे है।
जीन बैंक में नस्ल और जाति के आधार पर भी आंकड़े एकत्रित करने का प्रावधान है। इस दृश्टि से दावा तो यह किया जा रहा है कि मानव समूहों के बीच नस्लीय भेदभाव के वंषाणु नहीं मिलते हैं। सभी नस्ल और जाति के मनुश्यों में 99.99 प्रतिषत गुण-सूत्र एक जैसे पाए गए हैं। इसीलिए जीव-विज्ञानी दावा कर रहे हैं कि आनुवंषिक समानताओं की व्याख्या करके यह सुनिष्चित किया जा सकता है कि सबके पुर्खें एक थे, जो पूर्वी अफ्रीका में ड़ेढ़ लाख साल पहले हुए थे। इसके उलट सेंटर फाॅर सेल्युलर एंड माॅलिक्युलर बायोलाॅजी के पूर्व निदेष्क लालजी सिंह पहले ही कह चुके हैं कि वैष्विक आनुवंषिक मानचित्र पर डीएनए की श्रृंखला भारत की आबादी से मेल नहीं खाती। अतः इनके बारे में माना जाता है कि ये 65 हजार साल पहले अस्तित्व में आई और ग्रेटर अंडमानी जनजातियों के कहीं ज्यादा निकट हैं और यही सबसे प्राचीन ज्ञात मानव हैं। वैसे भी भारत में इतनी नस्लीय और जातीय विविधताएं हैं कि इनकी नस्ल और जाति आधारित डीएनए जांच का विष्लेशण भारत में जातिवाद को और पुख्ता ही करेगा। साथ ही,यह संदेह भी बना रहेगा कि जिस तरह ब्रिटिष षासनकाल में कुछ जातियों को आपराधिक जाति का दर्जा दे दिया गया था, उनका वंषानुक्रम खोज कर यह साबित न कर दिया जाए कि इनमें तो अपराध के लक्षण वंषानुगत हैं। जबकि जाति और अपराध का परस्पर कोई संबंध नहीं है। यह स्थिति बनती है तो सामुदायिक हितो के प्रतिकूल होगी ?
जीन संबंधी परिणामों को सबसे अहम् चिकित्सा के क्षेत्र में माना जा रहा है। क्योंकि अभी तक यह षत-प्रतिषत तय नहीं हो सका है कि दवाएं किस तहर बीमारी का प्रतिरोध कर उपचार करती हैं। जाहिर है,अभी ज्यादातर दवाएं अनुमान के आधार पर रोगी को दी जाती हैं। जीन के सूक्ष्म परीक्षण से बीमारी की सार्थक दवा देने की उम्मीद बढ़ गई है। लिहाजा इससे चिकित्सा और जीव-विज्ञान के अनेक राज तो खुलेंगे ही, दवा उद्योग भी फलेगा। इसीलिए मानव-जीनोम से मिल रही सूचनाओं का दोहन करने के लिए दुनिया भर की दवा और जीन-बैंक उपकरण निर्माता बहुराश्ट्रीय कंपनियां अरबों का न केवल निवेष कर रही हैं, बल्कि राज्य सत्ताओं पर जीन बैंक बनाने का पर्याप्त दबाव भी बना रही हैं।
हालांकि जीन की किस्मों का पता लगाकर मलेरिया, कैंसर, रक्तचाप, मधुमेह और दिल की बीमारियों से कहीं ज्यादा कारगर ढंग से इलाज किया जा सकेगा,इसमें कोई आषंका नहीं है। लेकिन इस हेतु केवल बीमार व्यक्ति अपना डाटाबेस तैयार कराए, हरेक व्यक्ति का जीन डाटा इकट्ठा करने का क्या औचित्य है ? क्योंकि इसके नकारात्मक परिणाम भी देखने में आ सकते हैं। यदि व्यक्ति की जीन-कुडंली से यह पता चल जाएगा कि व्यक्ति को भविश्य में फलां बीमारी हो सकती है, तो उसके विवाह में मुष्किल आएंगी ? बीमा कंपनियां बीमा नहीं करेंगी और यदि व्यक्ति, एड्स से ग्रसित है तो रोग के उभरने से पहले ही उसका समाज से बहिश्कार होना तय है। गंभीर बीमारी की षंका वाले व्यक्ति को खासकर निजी कंपनियां नौकरी देने से भी वंचित कर देंगी। जाहिर है, निजता का एह उल्लंघन मानवाधिकारों के हनन का प्रमुख सबब बन जाएगा ?
मानव डीएनए सरंचना विधेयक अस्तित्व में आ जाता है तो इसके क्रियान्वयन के लिए बड़ा ढांचागत निवेष भी करना होगा। डीएनए नमूने लेने, फिर परीक्षण करने और फिर डेटा संधारण के लिए देष भर में प्रयोगषालाएं बनानी होंगी। प्रयोगषालाओं से तैयार डेटा आंकड़ों को राश्ट्रीय व राज्य स्तर पर सुरक्षित राखने के लिए डीएनए डाटा-बैंक बनाने होंगे। जीनोम-कुण्डली बांचने के लिए ऐसे सुपर कंप्युटरों की जरूरत होगी, जो आज के सबसे तेज गति से चलने वाले कंप्युटर से भी हजार गुना अधिक गति से चल सकें। बावजूद महारसायन डीएनए में चलायमान वंषाणुओं की तुलनात्मक गणना मुष्किल है। इस ढांचागत व्यवस्था पर नियंत्रण के लिए विधेयक के मसौदे में डीएनए प्राधिकरण के गठन का भी प्रावधान है। हमारे यहां राजस्व-अभिलेख, बिसरा और रक्त संबंधी जांच-रिपोर्ट तथा आंकड़ों का रख-रखाव कतई विष्वसनीय व सुरक्षित नहीं है। भ्रश्टाचार के चलते जांच प्रतिवेदन व डेटा बदल दिए जाते हैं। ऐसी अवस्था में आनुवंषिक रहस्यों की गलत जानकारी व्यक्तिगत स्वंतत्रता तथा सामाजिक समरसता से खिलवाड़ कर सकती है। बावजूद निजी जिनेटिक परीक्षण को कानून के जरिए अनिवार्य बना देने में कंपनियां इसलिए लगी हैं, जिससे उपकरण और आनुवंषिक सूचनाएं बेचकर मोटा मुनाफा कमाया जा सके ? बहरहाल इन जानकारियों को निरापद मानना एक भ्रम भी हो सकता है। जैसा कि क्लोन के आविश्कार के समय दावा किया गया था कि पृथ्वी से विलुप्त हो चुके जीवों की मृत कोषिका से उक्त जीव का पुनर्जीवन संभव हो जाएगा ? लेकिन अब तक ऐसा हो नहीं पाया, ऐसा ही हश्र जीन बैंक में जमा डाटाबेस का भी हो सकता है।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम काॅलोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. 09425488224, 09981061100
फोन 07492 404524
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।
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