जातिगत जनगणना का खतरनाक सियासी खेल

                                                               प्रमोद भार्गव स्वतंत्र भारत में पहली बार 2021 में होने वाली जनगणना में वि...


                                                               प्रमोद भार्गव
स्वतंत्र भारत में पहली बार 2021 में होने वाली जनगणना में विभिन्न पिछड़ी जातियों के जातिवार आंकड़ें एकत्रित किए जाएंगे। इसके पहले 1931 में जातिगत जनगणना ब्रिटिष षासन में की गई थी। इसी आधार पर मंडल आयोग की सिफारिषों पर तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह सरकार ने संविधान में संषोधन कर 1989 में पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों 27 प्रतिषत आरक्षण का प्रावधान कर दिया था। वीपी सिंह ने यह सियासी खेल अपनी सरकार बचाने और मंदिर निर्माण आंदोलन से भाजपा के बढ़ रहे जनाधार को चुनौती देने की दृश्टि से खेला था। हालांकि इससे पहले मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल 2006 में सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन की एक षाखा राश्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) ने पिछड़ी जातियों की गिनती की थी और ओबीसी आबादी की हिस्सेदारी देष की कुल आबादी में 41 फीसदी बताई थी। इस सर्वेेक्षण में ग्रामीण इलाकों के 79,306 परिवार और षहरी क्षेत्रों के 45,374 परिवारों की गणना की गई थी। लेकिन कांग्रेस इस जातिगत सर्वेक्षण के आधार पर कोई नया चुनावी दांव नहीं चल पाई थी। किंतु अब भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर पिछड़ों और अतिपिछडों को लुभाने के लिए यह दांव खेला है। इसी नजरिए से वह बीते मानसून सत्र में पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का राजनीतिक दांव भी चल चुकी है। इस दांव के पीछे लालू, मुलायम और षरद यादव की जातिगत राजनीति खत्म करने के साथ मायावती के दलित वोट बैंक को हाषिए पर डालने की रणनीति भी निहित है। दरअसल पिछले 30 साल से लालू और मुलायम की राजनीति का आधार यही पिछड़ा समूह बना हुआ है।
आखिकार केंद्र सरकार ने जाति आधारित जनगणना को हरी झंडी देकर एक अच्छी पहल की है। चूंकि यह गणना केंद्र की राजग सरकार करा रही है, इसलिए विपक्षी दलों का विरोध करना स्वाभाविक है। अब बहाना बनाया जाएगा कि इससे जातिवाद और मजबूत होगा, जबकि एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में जाति तोड़ने के उपाय होने चाहिए ? लेकिन देश की हकीकत यह है कि जाति तोड़ने के जितने भी सनातन उपाय किए गये हैं, वे असफल ही रहे हैं। विनायक दमोदर सावरकर ने तो हिन्दुओं का जातिगत ढांचा नष्ट करने का संकल्प भी लिया था, लेकिन वे भी विफल रहे थे।
गणना की इस प्रणाली से कई अहं और नए पहलू सामने आएंगे। बृहत्तर हिन्दू समाज (हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख) में जिस जातीय संरचना को ब्राह्मणवादी व्यवस्था का दुष्चक्र माना जाता है, हकीकत में यह व्यवस्था कितनी पुख्ता है, इसका खुलासा होगा। मुस्लिम समाज में भी जातिप्रथा पर पर्दा डला हुआ है। आभिजात्य मुस्लिम वर्ग इसी स्थिति बहाल रखना चाहता है, जिससे सरकारी योजनाओं के जो लाभ हैं वे पूर्व से ही संपन्न लोगों को मिलते रहें। जबकि मुसलमानों की सौ से अधिक जातियां हैं, परंतु इनकी जनगणना का आधार धर्म और लिंग है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि जाति ब्राह्मणवादी व्यवस्था का कुछ ऐसा दुष्चक्र है कि हर जाति को अपनी जाति से छोटी जाति मिल जाती है। यह ब्राह्मणवाद नहीं है, बल्कि पूरी की पूरी एक साइकिल है। अगर यह जातिचक्र एक सीधी रेखा में होता, तो इसे तोड़ा जा सकता था। यह वर्तुलाकार है। इसका कोई अंत नहीं है। जब इससे मुक्ति का कोई उपाय नहीं है तो जाति आधारित जनगणना पर आपत्ति किसलिए ? वैसे भी धर्म के बीज-संस्कार जिस तरह से हमारे बाल अवचेतन में, जन्मजात संस्कारों के रूप में बो दिए जाते हैं, कमोबेश उसी स्थिति में जातीय संस्कार भी नादान उम्र में ही उड़ेल दिए जाते हैं।
इस तथ्य को एकाएक नहीं नकारा जा सकता कि जाति एक चक्र है। यदि जाति चक्र न होती तो अब तक टूट गई होती। जाति पर जबरदस्त कुठारघात महाभारत काल के भौतिकवादी ऋषि चार्वाक ने किया था। गौतम बुद्ध ने भी जो राजसत्ता भगवान के नाम से चलाई जाती थी, उसे धर्म से पृथक किया। बुद्ध धर्म, जाति और वर्णाश्रित राज व्यवस्था को तोड़कर समग्र भारतीय नागरिक समाज के लिए समान आचार संहिता प्रयोग में लाए। चाणक्य ने जन्म और जातिगत श्रेष्ठता को तिलांजलि देते हुए व्यक्तिगत योग्यता को मान्यता दी। गुरूनानक देव ने जातीय अवधारणा को अमान्य करते हुए राजसत्ता में धर्म के उपयोग को मानवाधिकारों का हनन माना। संत कबीरदास ने जातिवाद को ठेंगा दिखाते हुए कहा भी ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्यान।‘ महात्मा गांधी के जाति प्रथा तोड़ने के प्रयास तो इतने अतुलनीय थे कि उन्होंने ‘अछूतोद्धार’ जैसे आंदोलन चलाकर भंगी का काम दिनचर्या में शामिल कर, उसे आचरण में आत्मसात किया। भगवान महावीर, संत रैदास, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, संत ज्योतिबा फुले डाॅ. आम्बेडकर ने जाति तोड़क अनेक प्रयत्न किए, लेकिन जाति है कि मजबूत होती चली गई। इतने सार्थक प्रयासों के बाद भी क्या जाति टूट पाई ? नहीं, क्योंकि कुलीन हिन्दू मानसिकता, जातितोड़क कोशिशांे के समानांतर अवचेतन में पैठ जमाए बैठे मूल से अपनी जातीय अस्मिता और उसके भेद को लेकर लगातार संघर्ष करती रही है। इसी मूल की प्रतिच्छाया हम पिछड़ों और दलितों में देख सकते हैं। मुख्यधारा में आने के बाद न पिछड़ा, पिछड़ा  रह जाता है और न दलित, दलित ? वह उन्हीं ब्राह्मणवादी हथकंड़ों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगता है, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था के हजारों साल हथकंडे रहे। नजीतन जातीय संगठन और राजनैतिक दल भी अस्तित्व में आ गए।
जातिवार जनगणना और उससे वर्तमान आरक्षण पद्धति में परिवर्तन की उम्मीद को लेकर पिछड़े तबके के अलंबदार लालू-मुलायम-शरद का जोर था कि पिछड़ी जातियों की गिनती अनुसूचित जाति व जनजातियों की तरह कराई जाए। क्योंकि आरक्षण के संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद 16 की जरूरतों को पूरा करने के लिए यह पहल जरूरी है। लेकिन आरक्षण किसी भी जाति के समग्र उत्थान का मूल कभी नहीं बन सकता। क्योंकि आरक्षण के सामाजिक सरोकार केवल संसाधनों के बंटवारे और उपलब्ध अवसरों में भागीदारी से जुड़े हैं। इस आरक्षण की मांग शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार और षिक्षा हिस्सेदारी से जुड़ गई हंै। परंतु जब तक सरकार समावेशी आर्थिक नीतियों को अमल में लाकर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों तक नहीं पहुंचती तब तक पिछड़ी या निम्न जाति अथवा आय के स्तर पर पिछले छोर पर बैठे व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार नहीं आ सकता। परंतु गौरतलब है कि पूंजीवाद की पोषक सरकारें समावेशी आर्थिक विकास की पक्षधर क्यों होगी ?
2021 में की जाने वाली जाति आधारित जनगणना के आंकड़े तीन वर्श में आएंगे, जबकि 2011 तक जो जनगणनाएं की गई हैं, उनके आंकड़े आने में 7 से 8 साल तक का समय लग जाता है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि इस जनगणना में पहली बार सूचना प्रौद्योगिकी का भी उपयोग होगा और घरों की जियो टैगिंग भी कराई जाएगी। इसके नतीजे 2024 तक सामने आ जाएंगे। यह वही समय होगा, जब लोकसभा चुनाव निकट होंगे। साफ है, भाजपा 2019 के आम चुनाव में पिछड़ी जातियों की गिनती की घोशणा करके और ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर लुभाने में लगी है, वहीं 2024 तक यदि वह सत्ता में बनी रहती है तो पिछड़ी जातियों की प्रमाणिक गिनती के आधार को वोट बटोरने का आधार बनाएगी ? 2021 की जनगणना में ऐसे उपाय भी अमल में लाने चाहिए, जिससे बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिए इस गिनती में षामिल न होने पाएं ? ये घुसपैठिए देश के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने और सुरक्षा की दृष्टि से भारी बोझ बन गए हैं। आतंकवाद और सांप्रदायिक दंगों का कारण भी ये घुसपैठिए बन रहे हैं। अपने मूल स्परूप में जनसंख्या में बदलाव एक जैविक घटना होने के साथ समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक व आर्थिक आधारों को प्रभावित करती है। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना, माध्यमान्ह भोजन, बीपीएल और एपीएल के माध्यम से आहार का आधार बनाए जाने के कारण भी सटीक जनगणना जरूरी है। इसलिए जातिवार जनसंख्यात्म लक्ष्य देश के गरीब व वंचित वर्ग को खाद्य और पेयजल जैसी सुरक्षा का उपाय तो बनेंगे ही, सरकारी सेवाओं में आरक्षण किस जाति और वर्ग के लिए जरूरी है, इसकी भी झलक मिलेगी।
टीप- लेख में प्रस्तुत विचार पूर्ण रूप से लेखक के हैं जरूरी नहीं की ब्लॉग इससे सहमत हो ...

                                                                   प्रमोद भार्गव,

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