अंतरराश्ट्रीय संस्था बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेषन द्वारा स्वच्छ भारत अभियान के तहत नरेंद्र मोदी के सम्मन का निर्णय की ब्याख्या कर रहे है ...
अंतरराश्ट्रीय संस्था बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेषन द्वारा स्वच्छ भारत अभियान के तहत नरेंद्र मोदी के सम्मन का निर्णय की ब्याख्या कर रहे है प्रमोद भार्गव
अंतरराश्ट्रीय ‘बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेषन‘ द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को स्वच्छता के परिप्रेक्ष्य में सम्मानित करने का फैसला लिया गया है। यह एक तरह से ‘स्वच्छ भारत अभियान‘ के संकल्प और उसके सफल क्रियान्वयन का सम्मान है। जब मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने ग्रामों में षौचालयों के निर्माण को एक संकल्प का रूप दिया। इसके तहत खुले मे षौच की प्रवृति को समाप्त करने का लक्ष्य तय कर लिया था। गांधी जयंती 2 अक्टूबर 2014 को जब इस संकल्प का आरंभ हुआ तब देष में केवल 38.7 प्रतिषत ग्रामीण परिवारों के पास षौचालयों की सुविधा थी। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार यह संख्या केवल 32 प्रतिषत थी। नवीन आंकड़ों के मुताबिक अब तक 9.26 करोड़ से अधिक अतिरिक्त षौचालयों का निर्माण हो चुका है। नतीजतन षौचालय-युक्त घरों का आंकड़ा 99.1 प्रतिषत तक पहुंच गया है। हालांकि 2018-19 के ‘राश्ट्रीय ग्रामीण स्वच्छता सर्वेक्षण‘ के अनुसार 31 मार्च 2019 तक षौचालयों की सुविधा वाले परिवारों की संख्या का अनुपात 90.7 प्रतिषत बताया गया है। षौचालय और स्वच्छता को प्राथमिकता दिए जाने की वजह से ही प्रतिश्ठित अंतरराश्ट्रीय संस्था ‘बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेषन‘ द्वारा प्रधानमंत्री को सम्मानित करने का निर्णय लिया गया है। इस दृश्टि से संयुक्त राश्ट्र संघ के सर्वोच्च पर्यावरण सम्मान के बाद स्वच्छ भारत के लिए बिल गेट्स फाउंडेषन का यह सम्मान उनकी उपलब्धियों को रेखांकित व प्रमाणित करना है। यदि आगामी कुछ सालों में देष के समूचे 5.6 लाख ग्राम खुले में षौच से मुक्त हो जाते हैं, तो ग्राम तो स्वच्छ होंगे ही, ग्रामीण गंदगी से उपजने वाली बीमारियों से भी मुक्त हो जाएंगे। इन मायनों में एक तरह से स्वच्छता के परिप्रेक्ष्य में गांधी का स्वप्न भी 150वीं जयंती के साल में साकार होने की उम्मीद बढ़ जाएगी।
राश्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देष की मूलभूत समस्याओं को जितनी गहराई से समझा था, उतना किसी अन्य नेता ने नहीं समझा। इसके मूल में कारण था कि गांधी ने सबसे पहले गांव और गांववासियों को ठीक से समझा। उन्होंने ग्राम और ग्रामीण विकास को ही महत्वपूर्ण माना। इसलिए उनके आत्मकथात्मक दर्षन में उन सब पहलुओं का अवलोकन होता है, जो देष के समग्र व समतामूलक विकास के द्योतक हैं। गांधी कृशि और लघु व कुटीर उद्योग आधारित विकास को महत्वपूर्ण मानते थे। गांधी औद्योगिक विकास या आवष्यकता से ज्यादा मषीनीकरण के पक्षधर नहीं थे। दरअसल एक भविश्यदृश्टा होने के नाते उन्होंने जान लिया था कि आबादी के अनुपात में हमने मषीनीकरण को ज्यादा महत्व दिया तो बेरोजगारी बढ़ेगी, लघु व कुटीर उद्योगों को मषीनें निगल जाएंगी और इन मषीनों के खराब होने पर जो कचरा निकलेगा, उसे ठिकाने लगाना मुष्किल होगा ? असल में तकनीक उस सर्पिणी की तरह है, जो अपने ही षिषुओं को निगल जाती है। आज हम साक्षात देख रहे हैं कि भारी मषीनों के साथ जो इलेक्ट्रोनिक कचरा उत्पादित हो रहा है, स्वच्छता के लिए वह और भी बड़ा संकट बनकर सामने आया है। 400 साल तक नश्ट नहीं होने वाले प्लास्टिक कचरे ने थल, जल और नभ तक को भयंकर रूप से प्रदूशित कर दिया है। यह पलास्टिक कचरा पषुधन के भी विनाष का एक बहुत बड़ा कारण बनकर उभरा है। इसीलिए प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से आवाहन किया है कि प्लास्टिक के उपयोग पर प्रतिबंध लगाएंगे।
अंतरिक्ष भी कचरे से अछूता नहीं रह गया है। अंतरिक्ष यानों और उपग्रहों के 17 हजार करोड़ टुकड़े अंतरिक्ष की कक्षाओं को न केवल प्रदूशित किए हुए हैं, बल्कि संकट का सबब भी बने हुए हैं। यदि ये इन कक्षाओं में स्थापित उपग्रहों से टकरा जाते हैं तो उपग्रह तो नश्ट होंगे ही, ये धरती पर गिरकर भारी हानि पहुंचा सकते हैं। इसीलिए गांधी मषीनों से की जाने वाली कृत्रिम वस्तुओं के सीमित उत्पादन के पक्ष में थे, जिससे जो कचरा सृजित हो, एक तो वह पुनर्चक्रित करके फिर से काम आ जाए, दूसरे उसके भी जो अवषेश बचें वह प्रकृति की गोद में जैविक रूप से नश्ट हो जाए। दरअसल ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म जीवों के रूप में ऐसे जीवाणु व वीशाणु मौजूद हैं, जो कचरे को निगलकर उसे समाप्त कर दें। किंतु हमने गांधी के दार्षनिक मूल्यों को आजादी के बाद से ही लगभग नजरअंदाज कर दिया है, जिसका परिणाम हम आज भोगने को विवष हुए हैं। नतीजतन कई रूपों में स्वच्छता अभियान चलाना पड़ रहा है।
गांधी ने कहा है, ‘मैनें जितने भी उपवास किए हैं, करीब-करीब वे सभी नैतिक दृश्टि से किए हैं, फिर भी वे सब-कुछ असाध्य रोगों के निवारण में उपयोगी हो सकते हैं। यही बात स्वच्छता के साथ है। यदि जनता का सहयोग हो तो हमारे गांव भी स्वच्छ व सुदंर बन सकते हैं।‘ गांधी ने जब यह विचार दिया था, तब गांव हो या षहर औद्योगिक व इलेक्ट्रोनिक कचरे से लगभग मुक्त थे। खूले में केवल मल-विसर्जन गंदगी फैलाने का बड़ा कारण था। इससे बीमारियां भी फैलती थीं, जो कभी-कभी महामारी का रूप भी ले लेती थीं। इसलिए गांधी ने इस मल-मूत्र व अन्य प्रकार के कचरे को एक तो जैविक रूप से नश्ट करने के उपाय सुझाए, दूसरे कचरे से उपयोगी वस्तुएं बनाने की पहल भी की। जिससे स्थानीय स्तर पर ही रोजगार के साधन सुलभ हों और खासतौर से युवा आर्थिक रूप से स्वाबलंबी बन जाएं। इस उद्देष्य पूर्ति के लिए गांधी ने गलियों और मार्गों के किनारे पड़े कूड़ा-करकट को हटाकर उसके उपयोगी सह-उत्पाद बनाने की नसीहत दी।
गांधी ने कहा था, ‘इस कचरे को जमीन में गड्डा खोदकर गाढ़ देना चाहिए। यह कुछ ही दिनों में संपत्ति के रूप में परिणत हो जाएगा। यही उपाय जानवरों की हड्डियों के साथ करना चाहिए। इन्हें पीसकर बहुमूल्य जैविक खाद में बदला जा सकता है। फटे-पुराने कपड़ों और व्यर्थ रद्दी से कागज बनाया जा सकता है। मल-मूत्र से जैविक खाद बना लेना चाहिए। यह सूखा हो या गीला इसे तरल मिट्टी में मिलाकर एक फीट गहरे गड्डे में गाढ़ देना चाहिए। इससे एक सप्ताह के भीतर ही उपयोगी खाद बन जाएगी।‘ गांधी के तरीके और सुझाव बिल्कुल वही हैं, जो कृशि वैज्ञानिक मोटी-मोटी पोथियां पढ़कर दे रहे हैं। गांधी ने यह ज्ञान परंपरा से लिया, जबकि वैज्ञानिक लाखों रुपए खर्च करके और कठिन पढ़ाई करके ले पाए हैं। दरअसल गांधी मानते थे कि, प्राकृतिक संपदा का दोहन उतना ही किया जाए, जितनी इसकी आवष्यकता है। वैसे भी प्रकृति ने हमें इतना दिया है कि इससे सबका पोशण आसानी से हो सकता है, किंतु हवस यह संपदा एक आदमी की भी पूरी नहीं कर सकती है ? दरअसल गांधी जानते थे कि, कि प्राकृतिक संपदा के रूप में जो हमारी पूंजी है, उसका अधिकतम दोहन कर लिया गया तो गरीब आदमी का जीना मुष्किल हो जाएगा। गांधी अपने अनुभव से जानते थे कि प्रकृति में विद्यमान जो पंच-तत्व धरती, आकाष, हवा, पानी और अग्नि हैं, इनका रूपांतरण तो किया जा सकता है, किंतु किसी भी तत्व का निर्माण कृत्रिम तरीके से वैज्ञानिक नहीं कर सकते हैं।
महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर हम मूलतः उसी दर्षन को दोहराएंगे, जो गांधी ने करीब सौ साल पहले अपने उद्बोधनों, पुस्तकों और आचरण से दिए थे। गांधी जी का सबसे आदर्ष पहलू यह था कि उनके कार्य और व्यवहार में कोई भेद नहीं था। वे अपना षौचालय भी स्वयं साफ करते थे। इस वजह से उनके समय में षौच की गंदगी से मुक्ति का अभियान देखते-देखते स्व-स्फूर्त मुहिम में तब्दील हो गया। दरअसल गांधी जानते थे कि कोई भी सरकार जनता की आदतों में पर्याप्त सुधार नहीं ला सकती है। परंतु जनता स्वमेव जागरूक हो जाए तो सरकार को बहुत कुछ करने को बचा ही नहीं रहेगा। स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत राश्ट्रपिता की प्रेरणा से यही सब कुछ नरेंद्र मोदी ने कर दिखाया है।
इसी तरह पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायत मंत्री जयराम रमेष ने षौचालय को सामाजिक विसंगतियों से जोड़कर एक अभियान का सार्थक रूप देने की पहल की थी। इस दृश्टि से उन्होंने रेलवे को देष का सबसे बड़ा खुला षौचालय बताकर, षौचालयों को केंद्र में ला दिया था। इसके बाद षौचालयों की तुलना मंदिर से कर डाली। इससे उनका आषय था कि मंदिर की साफ-सफाई और पवित्रता का जितना ख्याल रखा जाता है, यदि उतना ही स्वच्छ और पवित्र पूरे घर को बनाना है तो घर-घर में षौचालय होना जरूरी है। इससे स्त्री भी उस तनाव और संकट से मुक्त होगी, जो उसे षौच जाते समय गिद्ध दृश्टि लगाए बैठे बहषियों से बनी रहती है। इसके बाद रमेष ने कोटा में युवतियों से आवाहन किया कि उस घर में षादी न करें, जिस घर में षौचालय न हो, यानी षौचालय नहीं, तो दुल्हन नहीं। इस मौके पर रमेष ने वघू पक्ष से अपील की थी कि जिस तरह आप जन्म पत्रिकाओं के मिलान के समय ग्रह-मैत्री और राहू-केतू की दषा देखते हैं, उसी तर्ज पर घर में षौचालय की उपलब्घता भी देखें। वैसे भी स्वच्छता महिलाओं की मर्यादा एवं सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है और इस दिषा में उस समय ‘निर्मल भारत अभियान’ ने एक जन आंदोलन का रूप लेना षुरू कर दिया था। इस अभियान में गांधी के विचार अंतर्निहित थे। दरअसल बड़ी संख्या में षौचालय बन जाएंगे तो हाथ से मैला ढोने की कुप्रथा का भी उन्मूलन आप से आप हो जाएगा। बहरहाल नरेंद्र मोदी का स्वच्छ भारत का संकल्प साकार रूप तो ले ही रहा है, इसे अंतरराश्ट्रीय स्वीकार्यता भी मिल रही है।
प्रमोद भार्गव
लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।
प्रमोद भार्गव
स्वच्छता का सम्मान
अंतरराश्ट्रीय ‘बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेषन‘ द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को स्वच्छता के परिप्रेक्ष्य में सम्मानित करने का फैसला लिया गया है। यह एक तरह से ‘स्वच्छ भारत अभियान‘ के संकल्प और उसके सफल क्रियान्वयन का सम्मान है। जब मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने ग्रामों में षौचालयों के निर्माण को एक संकल्प का रूप दिया। इसके तहत खुले मे षौच की प्रवृति को समाप्त करने का लक्ष्य तय कर लिया था। गांधी जयंती 2 अक्टूबर 2014 को जब इस संकल्प का आरंभ हुआ तब देष में केवल 38.7 प्रतिषत ग्रामीण परिवारों के पास षौचालयों की सुविधा थी। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार यह संख्या केवल 32 प्रतिषत थी। नवीन आंकड़ों के मुताबिक अब तक 9.26 करोड़ से अधिक अतिरिक्त षौचालयों का निर्माण हो चुका है। नतीजतन षौचालय-युक्त घरों का आंकड़ा 99.1 प्रतिषत तक पहुंच गया है। हालांकि 2018-19 के ‘राश्ट्रीय ग्रामीण स्वच्छता सर्वेक्षण‘ के अनुसार 31 मार्च 2019 तक षौचालयों की सुविधा वाले परिवारों की संख्या का अनुपात 90.7 प्रतिषत बताया गया है। षौचालय और स्वच्छता को प्राथमिकता दिए जाने की वजह से ही प्रतिश्ठित अंतरराश्ट्रीय संस्था ‘बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेषन‘ द्वारा प्रधानमंत्री को सम्मानित करने का निर्णय लिया गया है। इस दृश्टि से संयुक्त राश्ट्र संघ के सर्वोच्च पर्यावरण सम्मान के बाद स्वच्छ भारत के लिए बिल गेट्स फाउंडेषन का यह सम्मान उनकी उपलब्धियों को रेखांकित व प्रमाणित करना है। यदि आगामी कुछ सालों में देष के समूचे 5.6 लाख ग्राम खुले में षौच से मुक्त हो जाते हैं, तो ग्राम तो स्वच्छ होंगे ही, ग्रामीण गंदगी से उपजने वाली बीमारियों से भी मुक्त हो जाएंगे। इन मायनों में एक तरह से स्वच्छता के परिप्रेक्ष्य में गांधी का स्वप्न भी 150वीं जयंती के साल में साकार होने की उम्मीद बढ़ जाएगी। राश्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देष की मूलभूत समस्याओं को जितनी गहराई से समझा था, उतना किसी अन्य नेता ने नहीं समझा। इसके मूल में कारण था कि गांधी ने सबसे पहले गांव और गांववासियों को ठीक से समझा। उन्होंने ग्राम और ग्रामीण विकास को ही महत्वपूर्ण माना। इसलिए उनके आत्मकथात्मक दर्षन में उन सब पहलुओं का अवलोकन होता है, जो देष के समग्र व समतामूलक विकास के द्योतक हैं। गांधी कृशि और लघु व कुटीर उद्योग आधारित विकास को महत्वपूर्ण मानते थे। गांधी औद्योगिक विकास या आवष्यकता से ज्यादा मषीनीकरण के पक्षधर नहीं थे। दरअसल एक भविश्यदृश्टा होने के नाते उन्होंने जान लिया था कि आबादी के अनुपात में हमने मषीनीकरण को ज्यादा महत्व दिया तो बेरोजगारी बढ़ेगी, लघु व कुटीर उद्योगों को मषीनें निगल जाएंगी और इन मषीनों के खराब होने पर जो कचरा निकलेगा, उसे ठिकाने लगाना मुष्किल होगा ? असल में तकनीक उस सर्पिणी की तरह है, जो अपने ही षिषुओं को निगल जाती है। आज हम साक्षात देख रहे हैं कि भारी मषीनों के साथ जो इलेक्ट्रोनिक कचरा उत्पादित हो रहा है, स्वच्छता के लिए वह और भी बड़ा संकट बनकर सामने आया है। 400 साल तक नश्ट नहीं होने वाले प्लास्टिक कचरे ने थल, जल और नभ तक को भयंकर रूप से प्रदूशित कर दिया है। यह पलास्टिक कचरा पषुधन के भी विनाष का एक बहुत बड़ा कारण बनकर उभरा है। इसीलिए प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से आवाहन किया है कि प्लास्टिक के उपयोग पर प्रतिबंध लगाएंगे।
अंतरिक्ष भी कचरे से अछूता नहीं रह गया है। अंतरिक्ष यानों और उपग्रहों के 17 हजार करोड़ टुकड़े अंतरिक्ष की कक्षाओं को न केवल प्रदूशित किए हुए हैं, बल्कि संकट का सबब भी बने हुए हैं। यदि ये इन कक्षाओं में स्थापित उपग्रहों से टकरा जाते हैं तो उपग्रह तो नश्ट होंगे ही, ये धरती पर गिरकर भारी हानि पहुंचा सकते हैं। इसीलिए गांधी मषीनों से की जाने वाली कृत्रिम वस्तुओं के सीमित उत्पादन के पक्ष में थे, जिससे जो कचरा सृजित हो, एक तो वह पुनर्चक्रित करके फिर से काम आ जाए, दूसरे उसके भी जो अवषेश बचें वह प्रकृति की गोद में जैविक रूप से नश्ट हो जाए। दरअसल ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म जीवों के रूप में ऐसे जीवाणु व वीशाणु मौजूद हैं, जो कचरे को निगलकर उसे समाप्त कर दें। किंतु हमने गांधी के दार्षनिक मूल्यों को आजादी के बाद से ही लगभग नजरअंदाज कर दिया है, जिसका परिणाम हम आज भोगने को विवष हुए हैं। नतीजतन कई रूपों में स्वच्छता अभियान चलाना पड़ रहा है।
गांधी ने कहा है, ‘मैनें जितने भी उपवास किए हैं, करीब-करीब वे सभी नैतिक दृश्टि से किए हैं, फिर भी वे सब-कुछ असाध्य रोगों के निवारण में उपयोगी हो सकते हैं। यही बात स्वच्छता के साथ है। यदि जनता का सहयोग हो तो हमारे गांव भी स्वच्छ व सुदंर बन सकते हैं।‘ गांधी ने जब यह विचार दिया था, तब गांव हो या षहर औद्योगिक व इलेक्ट्रोनिक कचरे से लगभग मुक्त थे। खूले में केवल मल-विसर्जन गंदगी फैलाने का बड़ा कारण था। इससे बीमारियां भी फैलती थीं, जो कभी-कभी महामारी का रूप भी ले लेती थीं। इसलिए गांधी ने इस मल-मूत्र व अन्य प्रकार के कचरे को एक तो जैविक रूप से नश्ट करने के उपाय सुझाए, दूसरे कचरे से उपयोगी वस्तुएं बनाने की पहल भी की। जिससे स्थानीय स्तर पर ही रोजगार के साधन सुलभ हों और खासतौर से युवा आर्थिक रूप से स्वाबलंबी बन जाएं। इस उद्देष्य पूर्ति के लिए गांधी ने गलियों और मार्गों के किनारे पड़े कूड़ा-करकट को हटाकर उसके उपयोगी सह-उत्पाद बनाने की नसीहत दी।
गांधी ने कहा था, ‘इस कचरे को जमीन में गड्डा खोदकर गाढ़ देना चाहिए। यह कुछ ही दिनों में संपत्ति के रूप में परिणत हो जाएगा। यही उपाय जानवरों की हड्डियों के साथ करना चाहिए। इन्हें पीसकर बहुमूल्य जैविक खाद में बदला जा सकता है। फटे-पुराने कपड़ों और व्यर्थ रद्दी से कागज बनाया जा सकता है। मल-मूत्र से जैविक खाद बना लेना चाहिए। यह सूखा हो या गीला इसे तरल मिट्टी में मिलाकर एक फीट गहरे गड्डे में गाढ़ देना चाहिए। इससे एक सप्ताह के भीतर ही उपयोगी खाद बन जाएगी।‘ गांधी के तरीके और सुझाव बिल्कुल वही हैं, जो कृशि वैज्ञानिक मोटी-मोटी पोथियां पढ़कर दे रहे हैं। गांधी ने यह ज्ञान परंपरा से लिया, जबकि वैज्ञानिक लाखों रुपए खर्च करके और कठिन पढ़ाई करके ले पाए हैं। दरअसल गांधी मानते थे कि, प्राकृतिक संपदा का दोहन उतना ही किया जाए, जितनी इसकी आवष्यकता है। वैसे भी प्रकृति ने हमें इतना दिया है कि इससे सबका पोशण आसानी से हो सकता है, किंतु हवस यह संपदा एक आदमी की भी पूरी नहीं कर सकती है ? दरअसल गांधी जानते थे कि, कि प्राकृतिक संपदा के रूप में जो हमारी पूंजी है, उसका अधिकतम दोहन कर लिया गया तो गरीब आदमी का जीना मुष्किल हो जाएगा। गांधी अपने अनुभव से जानते थे कि प्रकृति में विद्यमान जो पंच-तत्व धरती, आकाष, हवा, पानी और अग्नि हैं, इनका रूपांतरण तो किया जा सकता है, किंतु किसी भी तत्व का निर्माण कृत्रिम तरीके से वैज्ञानिक नहीं कर सकते हैं।
महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर हम मूलतः उसी दर्षन को दोहराएंगे, जो गांधी ने करीब सौ साल पहले अपने उद्बोधनों, पुस्तकों और आचरण से दिए थे। गांधी जी का सबसे आदर्ष पहलू यह था कि उनके कार्य और व्यवहार में कोई भेद नहीं था। वे अपना षौचालय भी स्वयं साफ करते थे। इस वजह से उनके समय में षौच की गंदगी से मुक्ति का अभियान देखते-देखते स्व-स्फूर्त मुहिम में तब्दील हो गया। दरअसल गांधी जानते थे कि कोई भी सरकार जनता की आदतों में पर्याप्त सुधार नहीं ला सकती है। परंतु जनता स्वमेव जागरूक हो जाए तो सरकार को बहुत कुछ करने को बचा ही नहीं रहेगा। स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत राश्ट्रपिता की प्रेरणा से यही सब कुछ नरेंद्र मोदी ने कर दिखाया है।
इसी तरह पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायत मंत्री जयराम रमेष ने षौचालय को सामाजिक विसंगतियों से जोड़कर एक अभियान का सार्थक रूप देने की पहल की थी। इस दृश्टि से उन्होंने रेलवे को देष का सबसे बड़ा खुला षौचालय बताकर, षौचालयों को केंद्र में ला दिया था। इसके बाद षौचालयों की तुलना मंदिर से कर डाली। इससे उनका आषय था कि मंदिर की साफ-सफाई और पवित्रता का जितना ख्याल रखा जाता है, यदि उतना ही स्वच्छ और पवित्र पूरे घर को बनाना है तो घर-घर में षौचालय होना जरूरी है। इससे स्त्री भी उस तनाव और संकट से मुक्त होगी, जो उसे षौच जाते समय गिद्ध दृश्टि लगाए बैठे बहषियों से बनी रहती है। इसके बाद रमेष ने कोटा में युवतियों से आवाहन किया कि उस घर में षादी न करें, जिस घर में षौचालय न हो, यानी षौचालय नहीं, तो दुल्हन नहीं। इस मौके पर रमेष ने वघू पक्ष से अपील की थी कि जिस तरह आप जन्म पत्रिकाओं के मिलान के समय ग्रह-मैत्री और राहू-केतू की दषा देखते हैं, उसी तर्ज पर घर में षौचालय की उपलब्घता भी देखें। वैसे भी स्वच्छता महिलाओं की मर्यादा एवं सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है और इस दिषा में उस समय ‘निर्मल भारत अभियान’ ने एक जन आंदोलन का रूप लेना षुरू कर दिया था। इस अभियान में गांधी के विचार अंतर्निहित थे। दरअसल बड़ी संख्या में षौचालय बन जाएंगे तो हाथ से मैला ढोने की कुप्रथा का भी उन्मूलन आप से आप हो जाएगा। बहरहाल नरेंद्र मोदी का स्वच्छ भारत का संकल्प साकार रूप तो ले ही रहा है, इसे अंतरराश्ट्रीय स्वीकार्यता भी मिल रही है।
प्रमोद भार्गव
लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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